मरकर भी, अमर होना चाहती हूँ

मरकर भी,
अमर होना चाहती हूँ,
इस जीवन में,
कुछ कर गुज़रना चाहती हूँ।

निज अस्तित्व की,
पूर्ण पहचान चाहती हूँ,
निज आत्मप्रकाश से,
अँधेरा मिटाना चाहती हूँ।

किसी के जीवन में,
ख़ुशियों के दीप,
जलाना चाहती हूँ,
किसी के चेहरे पर,
ख़ुशी के भाव,
लाना चाहती हूँ।
मरकर भी,
अमर होना चाहती हूँ।

आनंद का व्यापार,
करना चाहती हूँ,
आनन्द ही आनंद,
बांटना चाहती हूँ,
मरकर भी,
अमर होना चाहती हूँ।

प्रकाश का सिपाही,
बनना चाहती हूँ,
तूफ़ानों में भी,
जलना चाहती हूँ,
गहन अँधेरे से,
लड़ना चाहती हूँ,
युगनिर्माण में,
जीवन खपाना चाहती हूँ,
मरकर भी,
अमर होना चाहती हूँ।

श्रेष्ठ उद्देश्यों से,
जीवन को जोड़ना चाहती हूँ,
ख़ुद के जन्म को,
सार्थक करना चाहती हूँ,
युगनिर्माण में,
निमित्त बनना चाहती हूँ,
मरकर भी,
अमर होना चाहती हूँ।

निंदा और नींद पर,
विजय चाहती हूँ,
मान-अपमान से,
परे होना चाहती हूँ,
सन्मार्ग पर सतत्,
चलना चाहती हूँ,
यज्ञमय श्रेष्ठ जीवन,
जीना चाहती हूँ,
मरकर भी,
अमर होना चाहती हूँ।

श्वेता चक्रवर्ती
डिवाईन इण्डिया यूथ एसोसिएशन

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