प्रश्न – क्या हमें प्राचीन आदर्शों को मानते हुए पति को परमेश्वर समझना चाहिए,

प्रश्न – क्या हमें प्राचीन आदर्शों को मानते हुए पति को परमेश्वर समझना चाहिए, और उनपर समस्त जीवन न्योछावर करके उनके बुरे व्यवहार और प्रताड़ना को मौन सहना चाहिए? उनकी अनुमति हो तो ही जॉब करें और न हो तो पढ़े लिखे होने के बावजूद क्या घर ही सम्हालना चाहिए? क्या अनैतिक पर प्रतिवाद करने पर पाप लगेगा? लम्बी आयु के लिए व्रत वगैरह करना चाहिए? वर्तमान युग के लिए समाधान दीजिये

उत्तर – आत्मीय बहन, युगऋषि परम पूज्य गुरूदेव ने नारियों के उत्थान और जागरण पर दो वांगमय *इक्कसवीं सदी नारी सदी(62) और *यत्र नारयन्ते पूज्यंते रमन्ते तत्र देवता(47)* लिखे हैं। गृहस्थी और विवाह पर अनेक पुस्तक के साथ दो वांगमय *गृहस्थ एक तपोवन(61) और   विवाहोंन्माद समस्या और समाधान(60)* लिखा है।

प्राचीन आदर्श उस वक्त के परिस्थिति के अनुसार लिखे गए थे, जब पत्नी गृह लक्ष्मी और अर्धांगिनी की तरह पहले प्रतिष्ठित होती थी तब पुरुष गृह स्वामी और परमेश्वर की तरह माना जाता था। बिन आधुनिक मशीनों के खेत खलिहान और व्यापार मात्र ही उपार्जन के माध्यम थे, यातायात के वाहन न के बराबर थे और पुलिस व्यवस्था भी न थी। कठोर शारीरिक श्रम पुरुष ने अपने हाथ में लिया और कठोर आध्यात्मिक श्रम और गृह व्यवस्था का उत्तरदायित्व स्त्री ने लिया, सतयुग था और घर प्रेम सहकार से बना गृहस्थाश्रम था, एक तपोवन था, केवल भोजन और जरूरी जीने के साधन जुटाए जाते थे, कोई दिखावा नहीं होता था। दोनों एक दूसरे के पूरक बने। तब कोई अन्य धर्मों मुस्लिम, क्रिश्चियन, बौद्ध इत्यादि का जन्म भी नहीं हुआ था।

मध्ययुगीन काल मे नए नए धर्मों का उदय हुआ और धर्म के नाम पर युद्ध और अनाचार बढ़ गया। जिसके कारण असुरक्षा बढ़ी और पर्दा प्रथा जैसी कुरीति ने हिंदू धर्म मे प्रवेश किया, और लड़कियों की शिक्षा पर रोक लगा दिया। वह मात्र घर गृहस्थी तक प्रतिबंधित कर दी गईं। अतः स्त्री को पुरुष की अर्द्धांगिनी के पद से डिमोट करके पति की दासी बना दिया गया। केवल नारियल लेकर यज्ञ की पवित्र अग्नि के समक्ष पवित्र शुभविवाह को दहेज़ प्रथा का श्राप और ग्रहण लग गया।

वर्तमान युग में आर्थिक उपार्जन के अनेक साधन है, यातायात की अत्याधुनिक व्यवस्था है, कृषि में भी आधुनिक मशीनों ने अपना वर्चस्व स्थापित किया है। अब लड़के पहले की तुलना में आर्थिक उपार्जन हेतु कम शारीरिक मेहनत और ज्यादा बौद्धिक मेहनत करते हैं, बौद्धिक मेहनत स्त्रियां पुरुषों के बराबर बड़े आराम से कर सकती हैं। स्त्रियां भी घर गृहस्थी आटा पीसने, धानकूटने और जलसरोवर से लाने जैसे कष्टसाध्य श्रम नहीं करती, अतः अब किचन पुरुष भी बड़े आराम से सम्हाल सकते हैं। 

प्राचीन ग्रन्थ रामायण के संदर्भ के अनुसार:-
1- यदि पति मर्यादापुरुषोत्तम राम की तरह है और श्रेष्ठ कर्म कर रहा है तो श्रीसीता जी बन जाओ अपना सर्वस्व न्योछावर कर दो और हर कदम पर उसका साथ दो, ऐसे पति को परमेश्वर मानो।

2- यदि पति राक्षस रावण की तरह है और निम्न कर्म कर रहा है तो मन्दोदरी बनो और उसका सदा विरोध करो। उसे पति परमेश्वर कदापि मत मानो। जो पर स्त्री पर नजर रखता हो उस पर सर्वस्व कभी न्योछावर मत करो। पहले उसे साम-दाम-दण्ड-भेद से सुधारो, राक्षस से देवता  बनाओ। जब वो सुधरकर देवता बन जाये तब रूल नम्बर 1 अप्पलाई करो।

3- यदि पति महान तपस्वी है तो पत्नी अनुसुइया की तरह सती और तपस्विनी बनो और केवल पति की पूजा से सब कुछ हासिल कर लो, उस पर सर्वस्व न्योछावर कर दो। क्योंकि समर्पित सती बनते ही पति के पास का समस्त तपबल तुमतक स्वतः पहुंच जाएगा।

4- यदि पति आम नागरिक है और साधारण कर्म कर रहा है। तो उसे साधारण सिर्फ पति मानो और उसे परमेश्वर की तरह मत पूजो। साधारण घर गृहस्थी प्रेम सहकार से चलाओ। पत्नी को पति के साथ कंधे से कंधा मिलाकर बाहर जॉब करना चाहिए और पति को पत्नी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर घर गृहस्थी में हाथ बटाना चाहिए। पति को पत्नी के लिए तप-व्रत करना चाहिए और पत्नी को पति के लिए तप-व्रत करना चाहिए।

पति की आकृति पुरुष की है, केवल इस आधार पर परमेश्वर की उपाधि नहीं दी जा सकती। पति के प्रकृति स्वभाव और कर्म से देवता जैसा है, तब ही वह परमेश्वर की तरह स्वीकृत करके पूजनीय होता है।

पत्नी को पुरुषार्थ से गृहस्थ एक तपोवन बनाना चाहिए और पति को मर्यादा पुरुषोत्तम राम बनाना चाहिए तभी पत्नी को सती सीता बनकर अपना सर्वस्व न्योछावर करना चाहिए।

अतः यह नियम पतियों पर भी लागू होता है, *यत्र नारयन्ते पूज्यंते रमन्ते तत्र देवता* ये वाली कहावत आंख बंद करके नहीं मानना चाहिए। पत्नी आकृति से स्त्री है केवल इसलिए उसे श्री लक्ष्मी की तरह पूजना नहीं चाहिए और उस पर सर्वस्व न्योछावर नहीं करना चाहिए। यदि स्त्री प्रकृति-स्वभाव और कर्म से देवी है, त्याग प्रेम सेवा और सहयोग की मूर्ति है तो ही लक्ष्मी रूप में स्वीकृत है और पूजनीय है। ऐसी तपस्विनी कर्मयोगी देवी स्त्री की पूजा से देवता वास करते है, इनका अपमान दुःख और दरिद्रता लाता है।

स्वयं तप करके अग्निवत देवता जैसे बनिये औऱ जीवनसाथी को प्रेम और अपने तपबल से अपने जैसा बनाइये। जिस प्रकार कैसी भी और किसी भी वृक्ष की समिधा हो अग्नि में पड़कर वह केवल अग्नि ही हो जाती है। बदल ही जाती है।

श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

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