प्रश्न – अध्यात्म में जुड़ने के बाद भी पुरुषार्थ क्यों करना पड़ता है?

उत्तर – अध्यात्म और पुरुषार्थ एक दूसरे के पूरक है, मानो कि बैंक के लॉकर की दो चाबियां है, जिनसे किस्मत का लॉकर खुलता है। मानो जिंदगी की गाड़ी के दो पहिये है जिन पर सफर करके मनचाही मंजिल मिल सकती है।

उदाहरण :- गाड़ी गड्ढे में फंसी तो चाहे एक बोतल दारू पियो या एक माला जपो, बिना पुरुषार्थ के गाड़ी गड्ढे से बाहर नहीं निकलेगी।

मंन्त्र जप से चेतना ऊपर उठेगी और समस्या का एरियल व्यू/टॉप व्यू मिलेगा और दिमाग चलेगा और आइडिया मिलेगा कि गाड़ी को गड्ढे से बाहर कैसे निकाले…शरीर में प्राण भरेगा बल बढ़ेगा। बुद्धि बल और शरीर बल से गाड़ी गड्ढे से बाहर निकालने में सफलता मिलेगी।

दारू पियोगे तो चेतना निम्न गामी होगी, समस्या का कोई व्यू नहीं मिलेगा और दारू के कारण दिमाग़ भ्रमित होगा। समस्या से उबरने की राह नहीं मिलती। मन भ्रमित और लड़खड़ाते शरीर से स्वयं को खड़ा नहीं रख पाओगे तो भला गाड़ी गड्ढे से कैसे निकाल पाओगे?

अध्यात्म जलती हुई मोमबत्ती की तरह होता है, जो विपत्ति के अंधेरे में राह दिखाता है, अध्यात्म की रौशनी में समस्या के ताले की चाबी ढूंढने में आसानी होती है। अध्यात्म की मोमबत्ती अंधेरे में केवल राह सुझाती है और अंधेरे में समाधान ढूंढने मदद करती है। मंजिल तक पहुंचने का और चाबी ढूढने का पुरुषार्थ मनुष्य को ही करना पड़ता है। मंन्त्र जप से बुद्धि की कुशलता बढ़ती है, तेजी से याद करने की क्षमता बढ़ती है, याददाश्त अच्छी होगी, मानसिक संतुलन बनेगा। लेकिन पास होने के लिए सम्बन्धित पुस्तक पढ़ने का पुरुषार्थ तो स्वयं को ही पड़ेगा।

उम्मीद है यह समझ आ गया होगा कि अध्यात्म और पुरुषार्थ दोनों जीवन मे सफ़लता के लिए जरूरी है। एक दूसरे के पूरक है।

#श्वेता #DIYA

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