प्रश्न – कर्कशा-झगड़ालू-स्वार्थी बहू को कैसे हैंडल करें

समस्या – *एक साधक के प्यार भरे परिवार में दो बेटे और एक बेटी है। बड़े बेटे की पत्नी स्वार्थ से प्रेरित और कुसंस्कारी है। बड़े बेटे को भड़का के घर नर्कमय बना दिया है, ऐसी परिस्थिति को कैसे हैंडल करें?*

उत्तर – चन्दन विष व्यापत नहीं लिपटे रहत भुजंग। पिता जैसे साधना बड़े बेटे के अंदर नहीं है। बेटा साधक नहीं है, इसलिए भड़काऊ बातों में आ जाता है।

बच्चो को सही ग़लत की परवरिश के साथ नित्य उपासना-साधना-आराधना से जोड़ना चाहिए, अच्छी पुस्तकों के स्वाध्याय की आदत बचपन से ही विकसित कर दें। बिन पूजन भोजन नहीं और बिन स्वाध्याय शयन नहीं। ऐसा बच्चा बड़ा होकर चन्दन की तरह मन वाला होगा और वो किसी के बहकावे में नहीं आएगा।

लड़की के माता पिता ने उसके अंदर कुसंस्कार और स्वार्थ बचपन से गढ़ा है, ससुराल के प्रति ईर्ष्या और पति की कमाई सिर्फ मेरी वाला भाव उसके मन मे बैठा हुआ है। वो भड़काने का कार्य सास ससुर से अलग होकर पति के साथ रहने के लिये कर रही है। जब तक वो अलग होने में सफलता प्राप्त नहीं कर लेती घर को नर्कमय बनाने का अनवरत प्रयास चलता रहेगा।

अतः सुख शांति चाहते है तो बड़े बेटे और बहू को आत्मीयता के साथ अलग कर दें। मन में कोई क्षोभ न रखें कि मैं तो इतनी साधना करता था, मेरे घर मे ऐसी बहु कैसे आ गयी। मेरे प्यार भरे परिवार को किसकी नज़र लग गयी, इत्यादि बातें सोचने और चिंता करने का कोई फ़ायदा नहीं।

प्रसिद्ध सन्त सुकरात की पत्नी उन्हें भरे समाज मे गाली देती थी, उनपर और उनके शिष्यों पर कचड़ा डाल देती थी। प्रसिद्ध सन्त तुकाराम की पत्नी जीजाबाई बड़ी कर्कशा और झगड़ालु थीं और उन्हें पीट भी देती थीं।

जब इतने बड़े सन्त अपनी पत्नियों को उनके प्रारब्ध के कारण नहीं सुधार सके, तो वो तो आपकी बहु है, जो आपकी सुनने को तैयार नहीं। उसको अलग कर देने में ही समझदारी है। बड़े बेटे को वो सुख दे रही है चाहे वो स्वार्थवश ही क्यों न हो, ठीक है।

प्रत्येक आत्मा को पिछले जन्मों के कर्मो के अनुसार रिश्तेदार के रूप में लेनदार या देनदार, शत्रु या मित्र मिलते है। देनदार और मित्र सुख देते हैं, लेनदार और शत्रु दुःख देते हैं।

ज्यादा विस्तृत जानकारी के लिए निम्नलिखित तीन पुस्तकें पढ़िये:-

1- प्रज्ञा पुराण कथामृतम
2- हम सुख से वंचित क्यों है?
3- गहना कर्मणो गतिः

अब रिश्तेदारी से उतपन्न विपरीत परिस्थिति से निपटने के लिए पढ़िये:-

1- मैं क्या हूँ?
2- अध्यात्म विद्या का प्रवेश द्वार
3- मित्र भाव बढ़ाने की कला
4- भाव सम्वेदना की गंगोत्री
5- गृहस्थ एक तपोवन
6- मानसिक संतुलन
7- मन के हारे हार है, मन के जीते जीत
8- प्रबन्ध व्यवस्था एक विभूति एक कौशल
9- व्यवस्था बुद्धि की गरिमा
10- स्वर्ग नरक की स्वचालित प्रक्रिया

यह संसार मे हम मोहवश और मायावश सुख दुःख का अनुभव करते है। क्योंकि जब रिश्तों और संसार से मोह में आशक्त होंगे और शरीर को सबकुछ मानेंगे हमेशा पीड़ा और दुःख झेलेंगे। जिस क्षण मोह बन्धन तोड़ देंगे, स्वयं को आत्म स्वरूप मांनेगे। मैं तो अजर अमर आत्मा हूँ, शरीर से जुड़े रिश्ते तो चिता के साथ जल जाएगा। मेरी यात्रा तो अनन्त है।

तो वो मोहबन्धन से मुक्त इंसान सन्त अरस्तू और सन्त तुकाराम की तरह कर्कशा-झगड़ालु-स्वार्थ पत्नी हो या कर्कशा-झगड़ालु-स्वार्थी पति हो या कर्कशा-झगड़ालु-स्वार्थी बहु या अन्य रिश्तेदार हो। सबके साथ सबके बीच रहते हुए भी कीचड़ में कमल के फूल की तरह निर्विकार और परमानन्द में रहता है। आत्मज्ञान को प्राप्त करने में सफल होता है।

श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

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