स्वाध्याय क्या है? और नित्य क्यों किया जाना चाहिए?

उत्तर – बुद्धिमान व्यक्ति शरीर के साथ साथ दिमाग के भी भोजन की व्यवस्था करता है। शरीर को सन्तुलित भोजन और दिमाग को सन्तुलित विचार देता है। शरीर के व्यायाम के साथ साथ दिमाग के व्यायाम की व्यवस्था करता है। घर के आर्थिक बजट में भोजन और मनोरंजन के साथ साथ सत्साहित्य ख़रीदने का भी बजट रखता है। घर में स्वाध्याय हेतु लाइब्रेरी और ध्यान हेतु पूजन स्थल जरूर होता है। दिन के 24 घण्टे में कम से कम एक घण्टे का स्वाध्याय नित्य करता है। जीते जी अपने लिए स्वर्ग का निर्माण करेंगे और मरने के बाद जिस घर मे जन्मेंगे बुद्धिमान बच्चे के रूप में जन्मेंगे। इसलिए माता पिता इन्हें पाकर धन्य होंगे।

लेकिन मूर्ख व्यक्ति दिमाग़ के महत्त्व को नहीं समझता। अतः उसके घर के बजट सत्साहित्य खरीदने की व्यवस्था नहीं होती। उसके घर लाइब्रेरी नहीं होती। छुट्टी के दिन फ़िल्म जाने का समय पैसा भोजन और मनोरंजन के लिए होता है लेकिन दिमाग़ के भोजन सद्विचार और मनोमन्जन(स्वाध्याय) के लिए वक्त और धन नहीं होता। ऐसे लोग जीते जी नरक का निर्माण करते हैं और मरने के बाद नया जन्म जहां लेंगे अपनी मूर्खता का परिचय वहां देंगे।

ज्ञान जीते जी भी काम आता है और मरने के बाद भी काम आता है। ज्ञान शरीर सदा बना रहता है, बस थोड़े से प्रयास से उसे पुनः संज्ञान में लाया जा सकता है।

शास्त्र की तीन प्रमुख अनुज्ञाएँ हैं- (१) सत्यं वद, (२) धर्मम् चर, (३) स्वाध्यायानमा प्रमदः। अर्थात् सत्य बोलें, धर्म को धारण करें और स्वाध्याय में प्रमाद न करें। इस निर्धारण के अनुसार सत्य और धर्म के ही समकक्ष स्वाध्याय को भी प्रमुखता दी गई है।

एक दूसरी गणना पवित्रता क्रम की है। मन, वचन और कर्म तीनों को अधिकाधिक पवित्र रखा जाना चाहिए। इस निर्धारण में मन की पवित्रता को प्रमुख माना गया है। इसके बाद वचन और कर्म है। मन की पवित्रता के लिए स्वाध्याय, वचन की पवित्रता सत्य से और कर्म का वर्चस्व धर्म निखरता है।

सत्य और धर्म की महत्ता के सम्बन्ध में सभी जानते हैं। भले ही उनका परिपालन न करते हो। किन्तु स्वाध्याय के सम्बन्ध में कम लोग ही यह निर्णय करते हैं कि उसकी महत्ता भी सत्य और धर्म के परिपालन से किसी प्रकार कम नहीं है। उसकी उपेक्षा करने पर इतनी ही बडी़ हानि होती है, जितनी कि सत्य और धर्म के सम्बन्ध में उदासीन रहने पर।

जिन दिनों इस धरती पर देव मानवों का बाहुल्य था, उन दिनों सत्य और धर्म का तो ध्यान रखा ही जाता था, पर स्वाध्याय को भी कम महत्त्व का नहीं माना जाता था। उनके लिए प्रत्येक विचारशील अपनी तत्परता बनाये रहता था।

स्वाध्याय का शब्दार्थ है अपने आप का अध्ययन- यह कार्य शिक्षितों के लिए शास्त्रों के नियमित अध्ययन द्वारा सम्पन्न होता है, शास्त्रों की मदद से स्वयं का अध्ययन और जानने में मदद मिलती है। शास्त्र उन ग्रन्थों को कहते हैं जो आत्म- सत्ता और उसकी महत्ता का बोध कराये। कर्तव्य पथ की जानकारी एवं प्रेरणा प्रदान करें।

याद रखिये -मात्र मन्त्र जप और चालीसा पाठ से मानसिक सँस्कार नहीं बनेंगे, अच्छे मानसिक सँस्कार हेतु ध्यान और स्वाध्याय आवश्यक है।

जो स्वाध्याय नहीं करते वो जन्म जन्मान्तरों के लिए मानसिक रुग्णता को आमंत्रित करते हैं। स्वयं को ज्ञानी समझना और स्वाध्याय के लिए अच्छी पुस्तकों को न पढ़ना दिमाग़ को सदा सर्वदा के लिए ज्ञान से विमुख कर देना है।

यदि आप ज्ञानमार्ग में स्वाध्याय करके आगे नहीं बढ़ रहे तो आप अज्ञानता की खाई की ओर स्वतः सरक रहे हैं।

स्वाध्याय के सम्बंध में महर्षि पतंजलि ने क्या कहा है जानने कर लिए पढ़े पुस्तक 📖 – *पातंजलि योग का तत्त्व- दर्शन*

श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

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