सतयुग की वापसी

जब स्वधर्म से अनभिज्ञ हो मोह की निंद्रा में स्वार्थ केंद्रित हो सोते है तो कलियुग होता है,

जब कर्तव्य पर मोह भारी पड़ता है और ऊंघते हुए स्वधर्म की उपेक्षा द्वापर है।

स्वधर्म का ज्ञान हो और सो नहीं रहे लेकिन प्रवचन में है आचरण में नहीं उतरा तो त्रेता है।

लेकिन जब स्वधर्म का ज्ञान है आत्मतत्व के लिए बोध है, और सत्य धर्म आचरण में है, अनवरत स्वधर्म पालन चैतन्य अवस्था में हो रहा है। तो यही सतयुग है।

इसलिए गुरुदेव कहते हैं- स्वयं का सुधार ही संसार की सबसे बड़ी सेवा है। शिक्षण शब्दों से नहीं बल्कि आचरण से दें।

सतयुग की वापसी वही कर सकेगा, जो सतयुग के लिए पहले स्वयं को बदल सकेगा। स्वयं में देवत्व जगा सकेगा।

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