भोजन पूर्व – गीता के श्लोक पाठ

श्रीमद्भागवत गीता, अध्याय 4, (यज्ञ और यज्ञ-फ़ल)

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्रौ ब्रह्मणा हुतम्‌ ।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥ (२४)

👉🏼 भावार्थ :- ब्रह्म-ज्ञान में स्थित उस मुक्त पुरूष का समर्पण ब्रह्म होता है, हवन की सामग्री भी ब्रह्म होती है, अग्नि भी ब्रह्म होती है, तथा ब्रह्म-रूपी अग्नि में ब्रह्म-रूपी कर्ता द्वारा जो हवन किया जाता है वह ब्रह्म ही होता है, जिसके कर्म ब्रह्म का स्पर्श करके ब्रह्म में विलीन हो चुके हैं ऎसे महापुरूष को प्राप्त होने योग्य फल भी ब्रह्म ही होता हैं। (२४)

👉🏼 *भोजन से पूर्व इसे जपने का महत्त्व* – जठराग्नि को यज्ञाग्नि मानो, औऱ भोजन को हवन सामग्री, यह पेट और शरीर हवनकुण्ड है। हम भोजन को यज्ञीय भाव से करें। प्रत्येक ग्रास यज्ञाहुति होगा।

अहा प्रति पल प्रति क्षण यज्ञीय भावना से जीना और यज्ञीय भावना से भोजन, अकल्पनीय श्रेष्ठ भावों का संचार होगा। भोजन के पोषक तत्वों का कारण जागृत होगा। प्राण ऊर्जा में वृद्धि करेगा।

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