प्रश्न – हमारे शहर में एक प्राचीन छोटा सा कृष्ण राधा मन्दिर था। जिसका जीर्णोद्धार हमारी सोसायटी के सभी लोगों ने अंशदान समयदान के माध्यम से किया। अब उस मन्दिर की व्यवस्था के लिए ट्रस्ट का गठन हो रहा है। एक भाई का सुझाव है कि मन्दिर ट्रस्ट में केवल लोकल वाशिन्दे ही ट्रस्टी बनना चाहिए, अन्य राज्यों से आये लोगों को ट्रस्ट व्यवस्था में प्रवेश वर्जित है। जबकि जब धन और समय सभी राज्यों के बहन भाईयों

प्रश्न – हमारे शहर में एक प्राचीन छोटा सा कृष्ण राधा मन्दिर था। जिसका जीर्णोद्धार हमारी सोसायटी के सभी लोगों ने अंशदान समयदान के माध्यम से किया। अब उस मन्दिर की व्यवस्था के लिए ट्रस्ट का गठन हो रहा है। एक भाई का सुझाव है कि मन्दिर ट्रस्ट में केवल लोकल वाशिन्दे ही ट्रस्टी बनना चाहिए, अन्य राज्यों से आये लोगों को ट्रस्ट व्यवस्था में प्रवेश वर्जित है। जबकि जब धन और समय सभी राज्यों के बहन भाईयों ने लगाया, हमारी सोसायटी में सभी राज्यो के लोग रहते हैं। इस सम्बंध में आपकी क्या राय है?

उत्तर – आत्मीय भाई, यह समस्या कॉमन है। कोई नई बात नहीं महाराष्ट्र का उदाहरण आपके समक्ष है।

मंदिर का भगवान लोकल नेता नहीं होता, जिसे केवल उसी की जाति या लोकल क्षेत्र के लोगों के बीच राजनीतिक पैठ बनानी होती है। भगवान कृष्ण यादवकुल राजवंश और मथुरा में जन्मे थे लेकिन उनके मन्दिर इस देश के विभिन्न राज्यों के साथ साथ पूरे विश्व मे है। जब दूसरे राज्य के भगवान को पूजते हो। जब दूसरे जाति में जन्मे भगवान को पूजते हो तो फ़िर दूसरे राज्य और जाति के भक्तों के साथ भेदभाव करने का हक कोई कैसे ले सकता है?

शबरी के बेर और सुदामा के तन्दुल, विदुर के घर शाक खाने वाले भगवान श्रीकृष्ण को केवल प्रेम से रिझाया जा सकता है। भक्ति और धन के अहंकार प्रदर्शन से उन्हें प्रशन्न नहीं किया जा सकता। भगवान कृष्ण के भक्त के बीच मे यदि भेदभाव करेंगे तो भगवान की कोप दृष्टि झेलनी पड़ेगी।

मन्दिर पर्सनल लोकल लोग पर्सनल खर्च से बनवाते तो कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन यदि उन्होंने सबसे पैसे एकत्रित करके मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया हैं तो 10 रुपये देने वाले और 10 लाख रुपये देने वाले दोनों लोगों का मंदिर पर पूर्ण अधिकार है। किसी ने ज्यादा मेहनत की किसी ने कम की लेकिन अपना 100% दिया तो भगवान भावना पर नम्बर देगा।भगवान Action(कर्म) नहीं देखता, भगवान Intention(कर्म के पीछे की भावना) देखता है।

न पैसे के आधार पर भेदभाव करना उचित है, और न ही जाति पाती के आधार पर भेदभाव करना उचित है और न हीं अन्य राज्यो के आधार पर भेदभाव करना उचित है। जब ईष्ट और सद्गुरु दूसरे राज्य का स्वीकार करते हो फिर दूसरे राज्य के भक्तों से भेदभाव क्यूँ?

समस्त सोसायटी के लोगों को एक मंच पर लाकर कहिये, व्यवस्था में उन लोगों को शामिल किया जाय जो वर्षों से अनवरत लोककल्याणार्थ कार्य कर रहे हैं। आप पुस्तक लोकसेवियो के लिए दिशाबोध अपने सोसायटी में बांटिए और पढ़ने को बोलिये, और तीन स्तर पर व्यवस्था बनाइये:-

1- मन्दिर संसद सदस्य- मन्दिर संसद में वो समस्त व्यक्ति को शामिल कीजिये जो नियमित या साप्ताहिक मन्दिर में भजन कीर्तन, यज्ञ, पूजन में आते हैं या विभिन्न एक्टिविटी में समयदान-अंशदान करते हैं। ( सेवक )

जो केवल कभी कभार पण्डित बुलवा के यज्ञ और भजन कीर्तन करवाते है वो मन्दिर सेवक संसद के सदस्य नहीं कहलाते।

2- मन्दिर संसद के सदस्यों को मताधिकार का प्रयोग करवा के मुख्य व्यवस्था के सदस्य का चयन करवाइये। (मंत्रिमंडल – सेवक मंडल)

3- फिर मुख्य व्यवस्था के सदस्य मतदान से मुख्य ट्रस्टी का चुनाव करें। (प्रधानमंत्री – प्रधान सेवक)

4- अंशदान के साथ साथ वस्तुदान की भी रसीद बनाएं, इससे कार्बन कॉपी आपके पास रेफरेन्स के लिए रहेगी। कोरे कागज में पेन से लिखकर कोई भी लेन देंन अप्रमाणिक होता है।

5- मासिक आय व्यय की रिपोर्ट मन्दिर संसद को भेजे।

6- मन्दिर संसद को यदि आप विश्वास में रखेंगे तो कभी भी धन और समय की कमी नहीं पड़ेगी। विरोध नहीं उपजेगा।

7- मन्दिर के छोटे से लेकर बड़े खर्च का वाउचर रखें। कोई भी कैश लेनदेन का वाउचर दोनों द्वारा साइन होना चाहिए। चेक लेनदेन में भी चेक नम्बर और अमाउंट नोट करें।

प्रत्येक 3 या 5 वर्ष में पुनर्गठन करते रहिए। मन्दिर जनजागृति का केंद्र बने इस हेतु प्रयास कीजिये। बाल सँस्कार शाला, युवा सँस्कार शाला, महिला सँस्कार शाला इत्यादि चलवाईये। वैज्ञानिक अध्यात्मवाद की पुस्तक युगसाहित्य वहां उपलब्ध करवाइये। श्रीमद्भागवत गीता का साप्ताहिक स्वाध्याय सत्संग ग्रुप चलाइये। कृष्ण की भक्ति बिन गीता के स्वाध्याय के अधूरी है।

श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

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