प्रश्न – स्वयं से मत भागो। जैसे हो वैसे स्वयं को स्वीकारो। ये क्या हैं? विस्तार से बताएं।

उत्तर – आत्मीय भाई, वास्तव में प्रत्येक संसारी मनुष्य स्वयं से भाग रहा है। जो जैसा है वह स्वयं को वैसा नहीं स्वीकारता। स्वयं की कम्पनी को एन्जॉय नहीं करता। एकांत में कुछ पल बिना मोबाइल टीवी और बाहरी गजेट्स के गुजार ही नहीं पा रहा। अपने ऊपर मेकअप का मुखौटा लगाता है। स्वयं को बाह्य चीज़ों में इतना व्यस्त रखता है कि स्वयं के अस्तित्व हो ही भूल जाये। स्वयं को भूलने के लिए नशे इत्यादि का सेवन करता है। जितना स्वयं से भागोगे उतना ही दुःख में उलझोगे। जब स्वयं के साथ एक घण्टे बिताकर स्वयं की कम्पनी ध्यान और गहन चिंतन द्वारा नहीं गुजार सकते, तो फ़िर ऐसे व्यक्ति के साथ दूसरा व्यक्ति कैसे उसकी कम्पनी को एन्जॉय कर सकेगा? जो सर से लेकर पांव तक झूठ के मुखौटे और नक़ली हँसी को लिए हो

स्वयं से प्रश्न करो कि मैं क्या हूँ? क्या मैं शरीर हूँ? या आत्मा हूँ?

शरीर किससे बनता है? भोजन- अन्न, फ़ल, जल इत्यादि से, जब यह पचता है तो रस-रक्त-माँस-मज़्ज़ा-हड्डी इत्यादि बनता है। बचपन की अपनी फ़ोटो देखो और अब वर्तमान शरीर को दर्पण में देखो। क्या यह बचपन वाला शरीर है? उत्तर मिलेगा नहीं…यह तो बदल गया…जब यह शरीर जिस भोजन-जल से बना यदि भोजन और जल हम नहीं है तो उससे बनने वाला शरीर हम कैसे हो सकते हैं? विज्ञान कहता है कि प्रत्येक 7 वर्ष में शरीर का कण कण पूर्णतया नया हो जाता है।

उदाहरण- अच्छा जब हम मरेंगे तो बोला जाएगा श्वेता चक्रवर्ती मर गयी, इनकी बॉडी को चलो जला दो वरना सड़ने पर दुर्गंध आएगी। यही आपके पूर्वजों को भी बोला गया होगा। यही आपको भी बोला जाएगा। श्मशान में जलती चिता के समक्ष सभी मनुष्य आत्मबोध को प्राप्त हो जाते हैं, शरीर नश्वर और आत्मा अमर समझते है, बड़े बड़े सङ्कल्प लेते हैं, लेकिन जैसे ही अपने अपने घर आते है सब आत्मबोध दरवाज़े पर ही छोड़ आते हैं। पुनः स्वयं को शरीर समझ कर दिनचर्या में लग जाते हैं।

कपड़े में यदि होल हो गया तो शरीर को फर्क नहीं पड़ता। इसी तरह आत्मा का वस्त्र शरीर है। शरीर में रोग हो गया तो आत्मा को फ़र्क नहीं पड़ता। रोग में दुःखी वह होगा जो शरीर केंद्रित होगा। रोग में भी सुखी वो होगा जो आत्म केंद्रित होगा।

कैंसर जैसे रोग को लेकर भी ठाकुर रामकृष्ण दुःख से परे थे, महर्षि रमण और विवेकानंद इत्यादि दुःख से परे आनन्दित थे। श्रद्धेय डॉक्टर साहब कई बार एक्सीडेंट और कई सारे ऑपरेशन से गुज़र चुके हैं, लेक़िन उनके चेहरे में दुःख नहीं दिखेगा क्योंकि वो भी आत्मकेंद्रित हैं। ऋषिसत्ताएँ जानती है शरीर रूपी वस्त्र रोगग्रस्त है तो उपचार करवाओ, जैसे कपड़ा फ़टने पर सिलाई करवाओ। लेकिन इसमें दुःखी होने जैसी कोई बात नहीं क्योंकि यह शरीर तो कुछ दिनों के लिए पहना है। इसे यहीं छोड़कर जाना है, फिर नया शरीर रुपी वस्त्र मिल जाएगा। चिंता की क्या बात है।

ऋषिसत्ताएँ स्वयं से भागती नहीं, कोई मुखौटा धारण नहीं करती। स्वयं को जैसे का तैसा स्वीकार करती है। ऋषिसत्ताएँ अपनी तुलना किसी से अन्य से नहीं करते, ये रोना कभी नहीं रोते कि ऐसा मेरे साथ ही क्यों हुआ? अरे हो गया तो हो गया, अब आगे क्या करना है उस पर विचार करते हैं। अपनी कम्पनी एन्जॉय करते है, परमात्मा की कम्पनी एन्जॉय करते हैं। ऋषियों को जंगल या हिमालय में अकेला छोड़ दो तो भी आनन्दित रहेंगे और संसार मे रख दो तो भी आनन्दित रहेंगे। क्योंकि संसार रूपी कीचड़ में भी वो कमल की तरह खिलना जानते हैं।

मेरे भाई, तुम्हारा शरीर रोगग्रस्त है, उससे ज्यादा मन रोगग्रस्त हो गया है क्योंकि शरीर से जुड़ी घटनाओं के निरन्तर चिंतन में हो, जो हो गया उसे स्वीकार नहीं कर रहे, स्वयं की वर्तमान स्थिति से भाग रहे हो और शरीर को ही मैं समझ रहे हो। यदि थोड़ा आत्मबोध जगा के डॉक्टर को एक दर्जी समझ के शरीर को वस्त्र समझ के उपचार करवाने जाओ। अन्य दिनों की तरह दर्द तो होगा लेकिन दुःख नहीं होगा। मन बीमार नहीं होगा। उपचार को साक्षी भाव से होते हुए देखोगे तो बिल्कुल दर्जी की तरह डॉक्टर दिखेगा जो तुम्हारे शरीर रूपी वस्त्र की मरम्मत कर रहा होगा।

शरीर के रोग डॉक्टर ठीक कर सकता है, क्योंकि स्थूल शरीर उपकरण से देखकर ऑपरेशन द्वारा ठीक किया जा सकता है।मन में इंजेक्शन लगाना या मन के विचारों को पकड़कर ऑपरेशन करना डॉक्टर के लिए संभव नहीं है।

अतः मन के रोग व्यक्ति स्वयं ठीक कर सकता है। मन के रोग अर्थात अनियंत्रित ग़लत अश्लील ऊटपटांग विचारों का प्रवाह, जो नहीं सोचना चाहते वो रूक नहीं रहा। गन्दे विचार को अच्छे विचारों से बदल सकते हैं। इसके लिए गायत्री महामंत्र का जप, ध्यान, स्वाध्याय, प्राणायाम और यग्योपैथी कारगर है। यह स्वयं प्रयत्नों द्वारा किया जा सकता है।

कभी कभी हॉस्पिटल के मुर्दाघर को देखो और दूसरी तरफ जच्चा बच्चा वार्ड देखो, एक ही अस्पताल एक तरफ आत्मा शरीर छोड़ रही है और दूसरी तरफ नया शरीर धारण कर रही हैं। कभी श्मशान को देखो नित्य जलते शरीर को देखो, ऐसे ही कई जन्मों  से हमारे शरीर जलते आ रहे हैं, पुनः हम जन्मते आ रहे हैं। यह क्रम चलता रहेगा।

शरीर और मन में कितने रोग हैं गिनने का कोई फ़ायदा नहीं है। शरीर और मन के रोगों में से जो स्वयं ठीक किया उसे स्वयं ठीक करो, जो डॉक्टर ठीक कर सकता है उसे डॉक्टर से ठीक करवा लो। समाधान केंद्रित होकर जियो।

जो दूसरों को खुशियां बांटता है, उस पर ब्रह्माण्डीय जीवनउर्जा और आनन्द स्वयं बरसता है।

स्वयं को और दूसरों को ओरिजिनल रूप में स्वीकारने लगोगे तो मैकअप के मुखौटों की जरूरत नहीं पड़ेगी। स्वयं को सुधारने और बदलने में जुटोगे तो दूसरों से उलझने की जरूरत नहीं पड़ेगी। आज अभी इसी वक्त से आनंद में जियोगे। जो होगा देखा जाएगा, मेरे हिस्से का मैं प्रयास करूंगा। बस यही जीवन जीने की कला है, साक्षी भाव से जीना।

श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

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