प्रश्न – संस्कार परम्परा क्यों आवश्यक है? सन्तान को श्रेष्ठ कैसे गढ़े?

उत्तर – आत्मीय बहन  जीवात्मा को यदि गर्भ से ही सम्हाला और सँवारा न जाये, तो मनुष्य अपनी अस्मिता का अर्थ समझना तो दूर, पीड़ा और पतन की ओर निरंतर अग्रसर होता हुआ नरकीटक, नर−वानर, बनता चला जाता है ।। जीवात्मा का प्रशिक्षण गर्भ में ही शुरू हो जाता है, जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त चलता है।। यही सँस्कार परम्परा है।। जीवन के महत्त्वपूर्ण मोड़ों पर सजग- सावधान करने और उँगली पकड़कर सही रास्ता दिखाने के लिए हमारे तत्त्ववेत्ता, मनीषियों ने षोडश संस्कारों का प्रचलन किया था ।। चिन्ह- पूजा के रूप में प्रचलन तो उनका अभी भी है पर वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक तथा आध्यात्मिक बोध और प्रशिक्षण के अभाव वे मात्र कर्मकाण्ड और फिजूलखर्ची बनकर रह गये हैं ।।

कुछ संस्कार तो रस के कुपित हो जाने पर उसके विष बन जाने की तरह उलटी कुत्सा भड़काने का माध्यम बन गये हैं ।। विशेष रूप से विवाहों में तो आज यही हो रहा है, भौंडे प्रदर्शन, ख़र्चीली शादी, दहेज प्रथा और नशा इत्यादि से युक्त विवाह विवाह संस्कार नहीं है।। यों मनुष्य माटी का खिलौना है ।। पाश्चात्य सभ्यता तो उसे ‘सोशल एनिमल’ अर्थात् ‘सामाजिक पशु’ तक स्वीकार करने में संकोच नहीं करती, पर जिस जीवन को जीन्स और क्रोमोज़ोम समुच्चय के रूप में वैज्ञानिकों ने भी अजर- अमर और विराट् यात्रा के रूप में स्वीकार कर लिया हो, उसे उपेक्षा और उपहास में टालना किसी भी तरह की समझदारी नहीं है ।। कम से कम जीवन ऐसा तो हो, जिसे गरिमापूर्ण कहा जा सके ।। जिससे लोग प्रसन्न हों, जिसे लोग याद करें, जिससे आने वाली पीढ़ियाँ प्रेरणा लें, ऐसे व्यक्तित्व जो जन्म- जात संस्कार और प्रतिभा- सम्पन्न हों, उँगलियों में गिनने लायक होते हैं ।। अधिकांश तो अपने जन्मदाताओं पर वे अच्छे या बुरे जैसे भी हों, उन पर निर्भर करते हैं, वे चाहे उन्हें शिक्षा दें, संस्कार दें, मार्गदर्शन दें, या फिर उपेक्षा के गर्त में झोंक दें, पीड़ा और पतन में कराहने दें ।।

प्राचीनकाल में यह महान दायित्व कुटुम्बियों के साथ- साथ संत, पुरोहित और परिव्राजकों को सौंपा गया था ।। वे *आने वाली पीढ़ियों को सोलह- सोलह अग्नि पुटों से गुजार कर खरे सोने जैसे व्यक्तित्व में ढालते थे ।। इस परम्परा का नाम ही संस्कार परम्परा है ।। जिस तरह अभ्रक, लोहा, सोना, पारस जैसी सर्वथा विषैली धातुएँ शोधने के बाद अमृत तुल्य औषधियाँ बन जाती हैं, उसी तरह किसी समय इस देश में मानवेत्तर योनियों में से घूमकर आई हेय स्तर की आत्माओं को भी संस्कारों की भट्ठी में तपाकर प्रतिभा- सम्पन्न व्यक्तित्व के रूप में ढाल दिया जाता था ।।* यह क्रम लाखों वर्ष चलता रहा उसी के फलस्वरूप यह देश ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ बना रहा, आज संस्कारों को प्रचलन समाप्त हो गया, तो पथ भूले बनजारे की तरह हमारी पीढ़ियाँ कितना भटक गयीं और भटकती जा रही हैं, यह सबके सामने है ।। आज के समय में जो व्यावहारिक नहीं है या नहीं जिनकी उपयोगिता नहीं रही, उन्हें छोड़ दें, तो शेष सभी संस्कार अपनी वैज्ञानिक महत्ता से सारे समाज को नई दिशा दे सकते हैं ।। इस दृष्टि से इन्हें क्रान्तिधर्मी अभियान बनाने की आवश्यकता है ।।

भारत को पुनः एक महान राष्ट्र बनना है, विश्व गुरु का स्थान प्राप्त करना है ।। उसके लिए जिन श्रेष्ठ व्यक्तियों की आवश्यकता बड़ी संख्या में पड़ती है, उनके विकसित करने के लिए यह संस्कार प्रक्रिया अत्यंत उपयोगी सिद्ध हो सकती है ।। ।। प्रत्येक विचारशील एवं भावनाशील को इससे जुड़ना चाहिए ।। युगतीर्थ शांतिकुंज हरिद्वार, गायत्री तपोभूमि मथुरा सहित तमाम गायत्री शक्तिपीठों , गायत्री चेतना केन्द्रों, प्रज्ञापीठों, प्रज्ञा केन्द्रों में इसकी व्यवस्था बनाई गई है ।। हर वर्ग में युग पुरोहित विकसित किए जा रहे हैं ।। आशा की जाती है कि विज्ञजन, श्रद्धालु जन इसका लाभ उठाने एवं जन- जन तक पहुँचाने में पूरी तत्परता बरतेंगे ।। डॉक्टर और बुद्धिजीवियों की टीम युगपुरोहित बनकर गर्भ का ज्ञान विज्ञान जन जन तक पहुंचा रहे है।। हमारे युवा युग पुरोहित जन्मदिवस और विवाह दिवस के उपलक्ष्य में घर घर जाकर अलख जगा रहे हैं।। सँस्कार के प्रति जागरूकता फैला रहे हैं।।

युग ऋषि (वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य) ने युग की तमाम समस्याओं का अध्ययन किया और उनके समयोचित समाधान भी निकाले । इसी क्रम में उन्होंने संस्कार प्रक्रिया के पुनर्जीवन का भी अभियान चलाया ।। उन्होंने संस्कारों को विवेक एवं विज्ञान सम्मत स्वरूप बना दिया है।। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है।। मनचाही सन्तान सही दिशा में प्रयत्न करके विविध संस्कारो के माध्यम से विचारो में क्रांति उतपन्न करके गढ़ सकता है।।

श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

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