प्रश्न – अध्यात्म में सरल होने का क्या अर्थ है?

सरल साधक और तरल जल दोंनो एक जैसे होते हैं। जल का कोई रूप रंग नहीं और कोई आकार नहीं, जिस पात्र में डाल दो उसी को समर्पित हो उसका आकार ले लेता है। सकाम साधक कभी भी सरल और निर्मल हृदय नहीं बन सकता। हृदय में बची एक ईच्छा भी अनेक होने में देर नहीं लगती।

इच्छाओं से रिक्त हृदय ही सरल और निर्मल बन सकता है। जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिए, कर्म में निमित्त भाव और कर्ता भगवान को ही स्वीकार ले जो हृदय वह ही सरल और निर्मल बन सकता है।

सरल साधक निर्मल हृदय से बनता है, यदि हृदय में कोई भी कैसी भी अच्छी या बुरी चाहत बची, किसी से हो या भगवान से कुछ भी पाने की इच्छा बची तो हृदय निर्मल न रहेगा। मोक्ष भी एक प्रकार की इच्छा है, जो साधक को सरल नहीं रहने देती। मोक्ष किसे चाहिए? मुझे? अर्थात परमात्मा से एकत्व नहीं हुआ, मैं विद्यमान है। जब मैं है तो हरि नहीं, जब हरि है मैं नाहि।

जब ईश्वर को समस्त ईच्छा सौंप दी जाती है, तन मन धन सर्वस्व उनका मान लिया, तो उनके रंग में साधक रंग जाता हैं। अब सौंप दिया इस जीवन का सब कंट्रोल/भार ईश्वर के हाथ में यह भाव दृढ़ रहना चाहिए।

फिर सूरदास कहावत चरितार्थ होती है- सूरदास काली कम्बल में चढ़े न दूजों रंग। फिर साधक ईश्वर के रंग में रंगने के बाद उस पर दुनियां का असर समाप्त हो जाता है। लोग क्या कहेंगे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वो संसार के किसी भी जीव से कोई अपेक्षा नहीं रखता। उसके लिए मान – अपमान सब बराबर होता है। जब कुछ पाना ही शेष न रहा तो फ़िर ईर्ष्या द्वेष इन सब सांसारिक भावनाओं के लिए जगह नहीं बचती। क्यूंकि ईर्ष्या द्वेष अहंकार तो मैं को होगा, लेकिन जब है ही नहीं वो ही वो है, हरि ही हरि है तो फ़िर निर्मलता और सरलता स्वभाविक है।

फ़िर जो बन गया भगवान का दास, बन गया ईश्वर यन्त्र और रंग गया प्रभु के रंग में, सोते जागते, श्वांस-श्वांस से जो ले रहा है प्रभु का नाम और कर रहा है बिना कुछ पाने की चाह में प्रभु का काम, उस सरल और निर्मल हृदय साधक के साथ हर पल रहते हैं भगवान।

श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

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